120 बहादुर: रेजांग ला के अमर शौर्य को समर्पित सिनेमा का सशक्त दस्तावेज
120 बहादुर 1962 के रेज़ांग ला युद्ध में 120 भारतीय सैनिकों के अदम्य साहस को बेहद सधे और संवेदनशील अंदाज़ में पेश करती है. मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व, अहिर सैनिकों की वीरता और कठोर परिस्थितियों में लड़ी गई आखिरी लड़ाई को फिल्म तकनीकी कुशलता और गहराई से जीवंत करती है.

Movie Review
बॉलीवुड आमतौर पर हमारे उत्तरी पड़ोसी के साथ हुई सैन्य झड़पों और युद्धों पर चुप्पी साधे रखता है, लेकिन इस सप्ताह निर्देशक रज़नीश 'रज़ी' घोष एक गौरवशाली अपवाद लेकर आए हैं. 120 बहादुर हमें 21 नवंबर 1962 को हुए रेज़ांग ला युद्ध की उस अदम्य गाथा में वापस ले जाती है, जहाँ चुषुल एयरफील्ड की रक्षा के लिए 120 भारतीय वीरों ने चीनी सेना की आक्रामक मंशाओं को ध्वस्त कर दिया था.
फिल्म भारत-चीन युद्ध की 63वीं वर्षगांठ के मौके पर रिलीज़ हुई है और कुमाऊँ रेजिमेंट की चार्ली कंपनी के जज़्बे को नए सिरे से याद कराती है. मेजर शैतान सिंह भाटी (फरहान अख़्तर) के नेतृत्व में जवानों ने असाधारण प्रतिरोध किया और चीनी सेना पर भारी क्षति पहुँचाई, जिससे अंततः चीन को एकतरफा युद्धविराम घोषित करने पर मजबूर होना पड़ा. भारत युद्ध में पीछे रहा, लेकिन रेज़ांग ला का यह युद्ध आज भी सैन्य परंपरा और राष्ट्रीय सम्मान का अटल प्रतीक है. पीछे हटने के आदेश आने के बावजूद, सैनिक अंतिम सांस और अंतिम गोली तक डटे रहे-और यही फिल्म का भावनात्मक केंद्र है.
सत्य, तकनीक और संवेदना का संतुलित मिश्रण
कई बॉलीवुड फिल्मों के उग्र राष्ट्रवादी स्वर के विपरीत, 120 बहादुर एक सधे हुए और ईमानदार अंदाज़ में युद्ध की कहानी कहती है. यह न तो अतिरंजित देशभक्ति पर निर्भर है और न ही वीरता के नाम पर तथ्यात्मक गहराई को दरकिनार करती है. बर्फ से जमी कठोर धरती पर सैनिकों की तैनाती, सैन्य रणनीति के सूक्ष्म विवरण और वातावरण के दंश को फिल्म ने बखूबी कैद किया है.
सामाजिक विविधता और सैन्य परंपरा की अनकही कहानी
फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह भारतीय सेना के सामाजिक-सांस्कृतिक स्वरूप पर रोशनी डालती है-एक ऐसा पक्ष जिसे मुख्यधारा सिनेमा अक्सर अनदेखा कर देता है. रेज़ांग ला की यह लड़ाई हरियाणा और राजस्थान के मैदानों से आए अहिर सैनिकों ने लड़ी थी. किसान परिवारों में पले-बढ़े इन जवानों ने अपने पूर्वजों की धरती की रक्षा के इतिहास को आत्मसात किया था. फिल्म बिना भाषणबाज़ी के उनके उद्देश्य, संकल्प और परंपराओं को सजीव बनाती है.
फिल्म यह भी दिखाती है कि कैसे औपनिवेशिक शासन ने कभी अहिर जाति को अनुशासनहीन माना था, लेकिन मेजर शैतान सिंह ने उनकी ऊर्जा, जज़्बे और कृष्णभक्ति को एक अनुशासित और प्रचंड सैन्य शक्ति में बदला. “दादा किशन की जय” का युद्धनाद न सिर्फ रणभूमि में, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक विमर्श में भी गूंजता है.
कथानक और चरित्रों में गहराई
एक रेडियो ऑपरेटर के दृष्टिकोण से सुनाई गई यह कहानी युद्ध में इंसान के भीतर होने वाले परिवर्तन को भी दर्शाती है. दिलचस्प बात यह है कि फिल्म ऐसे समय में आई है जब अहिर समुदाय अलग रेजिमेंट की मांग उठा रहा है. वहीं मेजर भाटी का राजपूत पृष्ठभूमि से होना यह संदेश देता है कि एक सैनिक अपनी पहचान लेकर आता है, लेकिन लड़ता राष्ट्र के लिए है.
विवान भाटेना, एजाज खान, अजय देव और अंकित सिवाच जैसे कलाकार कहानी को जीवंत बनाते हैं. उनकी युवा ऊर्जा और सहज अभिनय रेज़ांग ला के वीरों की आत्मा को स्क्रीन पर पुनर्जीवित करता है.









